Skip to main content

मौन और ध्यान में सम्बन्ध- ध्यान क्या है?

ध्यान और उसके लक्षण-

मनुष्य एक बीज के समान हैं, ध्यान से यह बीज एक चैतन्य रूपी वट वृक्ष बन जाता है। ध्यान स्वंय के परम चैतन्य को जानने की एक प्रक्रिया है।

अपने आपको जान लेने से श्रेष्ठ इस संसार में ओर कुछ भी नहीं है। दुनिया के सबसे बुद्धिमान व्यक्ति ही इसके लिए स्वयं को समर्पित कर पाते हैं और सबसे अधिक भाग्यशाली ही इसे प्राप्त कर पाते हैं।  


ध्यान से कल्याणकारी और शुभ कुछ भी नहीं है। इस लेख में ध्यान क्या है ? और इसके क्या फायदे है उनके बारे में बात करेंगे।

ध्यान क्या है ?

ध्यान मानवीय चेतना का परम चेतना के साथ एकाकार होने की प्रक्रिया है, जिसमें संपूर्ण जागरूकता के साथ विचारों का अंत हो जाता है। ध्यान शुक्ष्म चेतना का महाचेतना के साथ एकीकृत होने का अनुभव है ।

जिस प्रकार से सारी नदियां अंततः विराट समुंद्र में गिर जाती हैं, उसी प्रकार मानवीय चेतना का जीते जी परम चेतना में एक हो जाना या विराट चेतना में डुबकी लगा आना, यह ध्यान की सही परिभाषा है। ध्यान के द्वारा मानवीय चेतना अस्तित्व के नवीन स्तरों को प्राप्त करती है।

ध्यान के समय मन असाधारण रूप से शांत हो जाता है। मन में उठ रहे सभी प्रकार के विचारो का अंत हो जाता है। मन में उठने वाले सभी संघर्ष समाप्त हो जाते हैं।

 मन ही सुख-दु:ख का अनुभव करता है इसलिए ऐसे समय में सुख-दु:ख का भी अंत हो जाता है। महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं का भी अंत हो जाता है। 

ध्यान में मन अपने अस्तित्व से परे पूर्ण रूप से जागरण की स्थिति में चला जाता है। मन से परे चेतना असीमितता और व्यापकता का अनुभव करती है।

मन से अहंकार या तुच्छ अहम का विनाश हो जाता है। अहम के नाश के कारण "मैं" का भाव समाप्त हो जाता है। 

ध्यान प्रेम का आविर्भाव है, शर्त रहित करुणा और असीम संतोष का प्रागट्य है। ध्यान अपने आप में मुक्ति का अनुभव है ध्यान के समय व्यक्ति समय और स्थान के बोध दोनों से परे हो जाता है क्योंकि अस्तित्व का "मैं" रूपी केंद्र विलीन हो चुका होता है।

 ध्यान व्यक्ति की चेतना का समष्टि की चेतना में एकाकार होने की प्रक्रिया है। ध्यानी व्यक्ति की आंखें निर्दोष हो जाती हैं और चरित्र निष्कपट हो जाता है।

 ऐसे व्यक्ति के विकिरण उसके चारों ओर के वातावरण को बदल देते हैं। यह व्यक्ति सुख-दु:ख, चिंता, क्लेश, उत्तेजना और अभाव सब से विमुक्त हो जाता है और इसी कारण उसके मस्तिष्क से निकलने वाले विकिरण भी दूषित मनोभावों और विकारों से मुक्त होते हैं। 

ऐसे व्यक्तित्व का संपर्क या निकटता एक अद्भुत शांति की प्रतीति कराता है और उसके समीप का व्यक्ति भी अपने मन के दुखों और क्लेशों को शांत होता हुआ अनुभव करता है।

ध्यान कैसे करे और उसके लक्षण

ध्यान के लिए मस्तिष्क का शांत होना, विचार मुक्त होना, एकाग्रचित्त होना अत्यंत आवश्यक है। ध्यान हर समय किया जा सकता है।

ध्यान को किसी समय विशेष की सीमाओं में बांधना उचित नहीं है। आप कभी भी ध्यान में उतर सकते हैं। अपनी क्रियाओं के प्रति और अपने विचारों के प्रति सचेत होने के लिए हर क्षण बराबर महत्त्व रखता है। 

यदि आप यह सोचते हैं कि दिन में कुछ घंटे या कुछ मिनट एक विशेष मुद्रा में बैठकर अपने आप को एकाग्र कर लेंगे और बाकी पूरे दिन क्रोध,लालच,हिंसा आदि अपनी वृत्तियों पर कोई नियंत्रण नहीं रखेंगे और सजगता को भूल कर के समय गुजारेंगे तो ध्यान कभी जीवन में उदय नहीं हो सकता।

यदि आपने कोई एक विशेष स्थान चयन कर रखा है जहां आप अपने को एकाग्र करते हैं और उसके बाद में अपनी सजगता छोड़ देते हैं तो वह एकाग्रता आध्यत्मिक रूप से कोई सहायता नहीं कर पाएगी।

 भले ही आप घर में हो, जंगल में, पहाड़ी पर, नदी किनारे, बस में, ट्रेन में, दफ्तर में, दुकान पर, सड़क पर या और भी कहीं हों, सब स्थान उपयुक्त है अपने आप को सजग रखने के लिए। 

ध्यान में सभी प्रकार के विचार और संघर्ष समाप्त हो जाते हैं और चेतना महाचेतना का एक हिस्सा हो जाती है जो व्यक्ति को परम प्रेम की अनुभूति देता है। प्रेम आनन्द का दूसरा नाम है।

 प्रेम से भरा व्यक्ति वर्तमान क्षण में स्थित हो जाता है और ऐसा व्यक्ति ध्यान में आसानी से उतर जाता है। 

अहंकार व्यक्ति को सच्चा प्रेम स्वीकार करने नहीं देता और स्वार्थ उस प्रेम से कुछ पाने की लालसा में उसे नष्ट कर देता है। अहंकार और स्वार्थ के कारण व्यक्ति प्रेम से और अपने जीवन के सच्चे आनन्द से हमेशा दूर ही रहता है।

मौन और ध्यान का संबंध

मौन ध्यान की पहली सीढ़ी है। पहले व्यक्ति के व्यक्तित्व में मौन घटता है उसके बाद ध्यान उपस्थित होता है। मौन का मतलब सिर्फ शब्दों के मौन से नहीं है या किसी गुपचुप नीरव स्थिति से नहीं है, बल्कि मौन वास्तविक अर्थों में विचारों का मौन है या निर्विचारता की स्थिति है।

 शब्दों का मौन वास्तव में कोई महान नहीं होता है, क्योंकि ऐसे में भी मस्तिष्क पूरी तरह विचारों से भरा हो सकता है और यह विचार पूरी जीवन ऊर्जा को समाप्त कर सकते हैं। इसलिए अगर आप कुछ दिन भी बिना बोले रहते हैं तो भी आवश्यक नहीं कि विश्रांत अवस्था में पहुंच जाएंगे।

कई बार बहुत अधिक परेशान लोग भी बिना बोले रह लेते हैं परंतु उनका मन विचारों की बाढ़ से बहुत परेशान होता है। 

मौन का वास्तविक और आध्यात्मिक अर्थ विचारों की अल्पता होते- होते अंततः विचार शून्यता की स्थिति ही है। मौन की इस स्थिति में जब सजगता पूरी तरह चरित्र में प्रवेश करती है तो ध्यान सहज हो जाता है और ध्यान की अवस्था में मौन की गहराई और भी अधिक बढ़ जाती है। 

इसलिए मौन ध्यान का पूर्वगामी भी है और पश्चगामी भी। मौन और ध्यान से कुछ दिनों में एक मनुष्य वह हो सकता है जो वह अनेक जन्मों में भी नहीं हो पाया।

दुःख, तनाव, निराशा और हीनता का कारण बाहर जगत में नहीं अपितु स्वयं के भीतर ही होता है। इसका कारण है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था और जीवन पध्दति ऐसी है कि हम अपने मन और बुद्धि पर बहुत अधिक निर्भर रहते है और उनसे इतना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं की एक चीज भूल जाते हैं कि हम मन या बुद्धि नहीं है। 

ज्यादातर लोग अपने आप को मन या बुद्धि समझते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि हम ना तो शरीर हैं, ना ही विचारों से युक्त मन हैं, ना ही हम निर्णय करने वाली बुद्धि है। हम इन सबसे परे हैं।

इस लेख में आपको दी हुई जानकारी केसी लगी कृपया कमेंट करके जरूर बताये और और भी भक्ति और मेडिटेशन से सम्बंधित लेख पड़ने के लिए हमारी वेबसाइट को विजिट करे। 

लेखक- मुकेश कुमार पारीक (website- poshanraj.org)

मुकेश धर्म, पाठ और ध्यान (मैडिटेशन) जैसे विषयों पर लिखते हैं। 

Related: Vishnu Sahasranamam Benefits

Disclaimer: This post is written by Guest Author, views are personal only.

Comments

  1. बहुत अच्छी जानकारी प्रदान की आपने धन्यवाद

    ReplyDelete
  2. अति उत्तम विश्लेषण,

    ReplyDelete

Post a Comment