माँ काली कवच का पाठ सभी प्रकार की तंत्र विद्याओं और बुरी शक्तियों से रक्षा करता है। अलग-अलग पुस्तकों में काली कवच का अलग-अलग रूप देखने को मिलता है, यहाँ रुद्रयामल तंत्र में वर्णित काली कवच का पाठ दिया गया है।
इस कवच के अर्थ को लिखते समय अत्यंत सावधानी की गयी है, यह अर्थ लेखक के स्वविवेक और समझ के अनुसार लिखा गया है। इस अर्थ का उद्देश्य मात्र श्लोकों को समझने के लिए है। कवच के मन्त्रों के साथ अर्थ का पाठ न करें।
काली कवच का पाठ तांत्रिक पूजन में किया जाता है जिसके लिए गुरु के सानिध्य में होना आवश्यक है, साधारण व्यक्ति को इस कवच का पाठ करने से बचना चाहिए। साधारण साधक केलिए दुर्गा चालीसाया देवीकवच ही पर्याप्त है।
श्री गणेशाय नमः
कैलाशशिखरासीनं शङ्करं वरदं शिवम् ।
देवी प्रपच्छ सर्वज्ञं देवदेवं महेश्वरम् ।।
कैलाश की चोटी पर बैठे हुए देवादिदेव, महेश्वर और सर्वज्ञ शंकर जी से पार्वती ने प्रश्न किया-
देव्युवाच
भगवन् देवदेवेश देवानां मोक्षद प्रभो।
प्रब्रूहि मे महाभाग गोप्यं यद्यपि च प्रभो ।।
शत्रूणां येन नाशः स्यादात्मनो रक्षणं भवेत् ।
परमैश्वर्य्यमतुलं लभेद् येन हि तं वद।।
देवी ने कहा- हे देवों के देव, हे देवों को मोक्ष देने वाले प्रभु, हे महाभाग! जो
यद्यपि गुप्त है, वह रहस्य मुझे बताइये जिससे प्राणों की रक्षा और शत्रुओं का नाश
हो, हे अतुल्य परमेश्वर मैं आपसे सुनना चाहती हूँ.
भैरव उवाच
वक्ष्यामि ते महादेवि सर्वधर्म्म हिताय च
अद्भुतम कवचं देव्यास्सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।।
भैरव (शिवजी) ने कहा- हे महादेवी मैं सभी धर्मों के हित के लिए आपसे यह अद्भुत कवच कहता हूँ जो सब मनुष्यों की रक्षा करने वाला है।
सर्वारिष्ट-प्रशमनं सर्वोपद्रवनाशनम्।
सुखदं भोगदं चैव वश्याकर्षणमद्भुतम् ।।
शत्रूणां संक्षयकरं सर्वव्याधिनिवारणम्
दुःखिनो ज्वरिणश्चैव
स्वाभीष्टप्रहतास्तथा ।।
भोगमोक्षप्रदं चैव कालिका कवचं पठेत्
ये कवच सभी संकटों को शांत करने वाला और सभी उपद्रवों का नाश करने वाला है, ये सुख और भोग देने वाला है और अद्भुत वश आकर्षण उत्पन्न करता है।5।
यह शत्रुओं की संख्या को हानि पहुंचाता है और सभी व्याधियों (बीमारियों) को दूर करता है। जो कोई दुखी या ज्वर से पीड़ित हो, या जिसे शत्रुओं ने हानि पहुंचाई हो ।6। उसे भोग और मोक्ष देने वाले इस कालिका कवच का पाठ करना चाहिए।
विनियोग-
ॐ अस्य श्री कालीकवचस्य श्री भैरव ऋषिः गायत्री छन्दः श्रीकालिका देवता ममाभीष्टसिद्धये पाठे विनियोगः ।
ध्यनाम्-
ध्यायेत कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिणीं ।
चतुर्भुजां ललज्जिह्वाम् पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।।
मैं महामाया काली का ध्यान करता हूँ उनके तीन नेत्र और अनेक रूप हैं, उनकी चार भुजाएं और डोलती हुई (लहराती) जीभ है, जिनका रूप पूर्ण चन्द्र के समान दिखता है।
नीलोत्पल दलश्यामां शत्रुसंघविदारिणीं ।
नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं च वरं तथा ।।
जिनका शरीर नीले कुमुदनी के फूल के दल के समान है, [अपने हाथों में] कमल, खड़ग, नरमुंड और वरदहस्त धारण करने वाली ।
निर्भयां रक्तवदनां दंष्ट्राली घोररूपिणीम् ।
साट्टहासाननां देवी सर्वदा च दिगंबरीम्।।
निर्भया [जो निर्भय है], शरीर रक्त से तरबतर है जिनका, मुख उग्र है और रूप घोर [डरावना] है। सर्वदा (हमेशा) अट्टहास (ठहाका मारकर हँसना) आसन में बैठी देवी का, दिगम्बरी का-।
शवासनस्थितां कालीं मुण्डमालाविभूषितां।
इति ध्यात्वा महाकालीं ततस्तु कवचं पठेत्।।
शवों के ऊपर आसन बनाये बैठी और मुंडमाला से सजी हुई काली का [ ध्यान करता हूँ ]। इस प्रकार महाकाली का ध्यान करके फिर कवच का पाठ करना चाहिए।
मूल कवच पाठ-
ॐ कालिका घोररूपाढ्या सर्वकामप्रदा शुभा ।
सर्वदेव-स्तुतां देवी शत्रुनाशं करोतु मे ।।
ॐ कालिका का घोर (डरावना) रूप है, वे सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली और शुभा (शुभ करने वाली) हैं। सभी देवों के द्वारा स्तुतित हे देवी मेरे शत्रुओं का नाश करो।
ह्रीं ह्रीं स्वरुपिणीं चैव ह्रीं ह्रीं हूं रूपिणीं तथा।
ह्रीं ह्रीं क्षें क्षें स्वरूपा सा सदा शत्रून्विदारयेत्।।
ह्रीं ह्रीं के स्वरूप में तथा ह्रीं ह्रीं हूं के स्वरुप में और ह्रीं ह्रीं क्षें क्षें केस्वरुप में वे देवी सदा ही शत्रुओं को विदीर्ण करती हैं।
श्रीं ह्रीं ऐं रूपिणी देवी भवबन्धविमोचिनी।
हसकल ह्रीं ह्रीं रिपून् सा हरतु देवी सर्वदा।।
श्रीं ह्रीं ऐं के रूप में देवी भव सागर के बंधन से मुक्त करती हैं। ह्रीं ह्रीं के रूप में देवी सदा शत्रुओं का हरण करें।
यथा शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः।
वैरिनाशाय वन्दे तां कालिकां शङ्करप्रियाम्।।
ह्रीं ह्रीं के रूप में देवी सदा शत्रुओं का हरण करें। जिसने शुम्भ दैत्य और निशुम्भ महासुर का नाश किया, शत्रुओं के नाश के लिए उन शंकर की प्रिय कालिका की [मैं] वंदना करता हूँ।
ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका।
कौमार्यैन्द्री च चामुण्डा खादयन्तु मम द्विषः।
ब्राह्मी, शैवी (शिव की शक्ति), वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, कौमारी (कार्तिकेय की शक्ति) और चामुण्डा मेरे द्विष (जो द्वेष करता हो) का भक्षण करें।
सुरेश्वरि घोररूपा चण्ड-मुण्ड-विनाशिनी ।16।
मुण्डमालावृतांगी च सर्वतः पातु माम् सदा।
सुरेश्वरि, घोररूपा, चंड-मुंड विनाशिनी और मुण्डमाला पहनने वाली देवी सदा मेरी रक्षा करें।
(अथ मन्त्रः-)
(ये मन्त्र बीज मन्त्र कहे जाते हैं, जिनका अर्थ जानना न संभव है, न आवश्यक है और
न ही वान्छनीय, केवल जप ही पर्याप्त है)
ह्रीं ह्रीं कालिके घोरंदष्ट्रे रुधिरप्रिये रुधिरपूर्ण-वक्त्रे रुधिरवृत्तस्तनि
मम शत्रून् खादय खादय हिंसय हिंसय मारय मारय भिन्दि भिन्दि छिन्धि छिन्धि उच्चाटय
उच्चाटय द्रावय द्रावय शोषय शोषय स्वाहा स्वाहा ।
ह्रीं ह्रीं कालिकायै मदीय शत्रून् समर्पयामि स्वाहा।
ॐ जय जय किरि किरि किटि किटि कुट कुट कट्ट कट्ट मर्दय मर्दय मोहय मोहय हर हर मम रिपून् ध्वंसय ध्वंसय भक्षय भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुधानि चामुण्डे सर्व जनान् राज्ञो राजपुरुषान् योषा रिपून् मम वश्यान् कुरु कुरु तनु तनु धान्यं धनमश्वान् गजान् रत्नानि दिव्यकामिनीः पुत्र-पौत्रान् राजश्रियं देहि देहि भक्ष भक्ष क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः स्वाहा ।
(इति मन्त्रः)
फलश्रुति-
इत्येत कवचं दिव्यं कथितं शम्भुना पुरा।
ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नश्यन्ति शत्रवः।।
पुराकाल में शम्भू (शिव) के द्वारा कहे गये इस कवच का जो पाठ करता है, उसके शत्रुओं का नाश होता है।
प्रलयः सर्व-व्याधीनां भवतीह न संशयः।
धनहीनाः पुत्रहीनाः शत्रवस्तस्य सर्वदा ।।
उसके शत्रुओं पर प्रलय आ जाती है और सभी बीमारियाँ उसे लग जाती हैं, वह सदा दरिद्र और पुत्रहीन रहता है।
सहस्र-पाठनात्सिद्धिः कवचस्य भवेत्तथा ।
ततः कार्याणि सिद्ध्यन्ति यथा शङ्करभाषितम् ।।
जो इस कवच का एक हजार बात पाठ करता है, शिव के भाषण अनुसार उसके कार्य
सिद्ध होते हैं। ( मैंने इसके आगे के कुछ श्लोकों का अर्थ नहीं लिखा है, तांत्रिक
पूजा के इन श्लोकों के अनुवाद में गलती की सम्भावना होने के कारण मुझे ऐसा करना
पड़ा है, इसके लिए मुझे क्षमा करें)
श्मशानाङ्गारमादाय चूर्णोकृत्य प्रयत्नतः ।
पादोदकेन स्पृष्ट्-वा च लिखेल्लौह-शलाकया ।।
भूमौ शत्रून् हीनरूपान् उत्तराशिरसस्तथा ।
हस्तं दत्त्वा तद्हृदये कवचं तु स्वयं पठेत् ।।
शत्रोः प्राणप्रतिष्ठान्तु कुर्यान्मन्त्रेण मन्त्रवित् ।
हन्यादस्त्र-प्रहारेण शत्रुर्गच्छेद् यमालयम् ।।
ज्वलदंगार-तापेन भवन्ति ज्वरिणोSरयः ।
प्रोक्षणैर्वामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ।।
वैरिनाशकरं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् ।
परमैश्वर्यदं चैव पुत्रपौत्रादिवृद्धिदम् ।।
शत्रुनाश करने के अलावा इस कवच का पाठ वशीकारक होता है, यह परम ऐश्वर्य देता है और पुत्र-पौत्रादि की वृद्धि करता है।
प्रभातसमये चैव पूजाकाले प्रयत्नतः ।
सायंकाले तथा पाठात् सर्वसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम्।।
सुबह पूजा के समय या सायंकाल में इसका पाठ करने से निश्चय ही सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
शत्रुरुच्चाटनं याति देशाच्च विच्युतो भवेत्।
पश्चात्किंकरमाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः ।।
साधक शत्रुओं के लिए पाठ करने पर देश को स्वतंत्र कर [शत्रुओं को] दास बना देता है, यह सत्य है इसमें कोई संशय नहीं है।
शत्रुनाशकरं देवी सर्व-संपत्प्रदे शुभे ।
सर्वदेवस्तुते देवी कालिके त्वां नमाम्यहम् ।।
शत्रुनाश करने वाली देवी और सभी प्रकार की संपत्ति देने वाली, सभी देवों के द्वारा स्तुतित देवी कालिका [मैं] तुम्हें प्रणाम करता हूँ।
। इति श्रीरुद्रयामलतन्त्रोक्तं कालिकाकवचम् संपूर्णम् ।
Source:
Meaning-
http://www.hindupedia.com/en/Kaalikaa_Kavacham
Kavach Path -
https://archive.org/embed/RudrayamalaTantram_201712
Jai Maa Kali
ReplyDeleteजय महाकाली
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